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बेखटके / नीलेश रघुवंशी

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नींद इतनी कम और जलन इतनी ज़्यादा कि
सड़क किनारे
सोते कुत्ते को देख भर जाती हूँ जलन से
इतनी कमियाँ हैं जीवन में कि
पानी के तोड़ को भी देखने लगी हूँ उम्मीद से
अन्तिम इच्छा कहें या कहें पहली इच्छा
मैं बेखटके जीना चाहती हूँ।

निकलना चाहती हूँ आधी रात को बेखटके
रात बारह का शो देखकर
रेलवे स्टेशन पर घूमूँ जेब में हाथ डाले
कभी प्रतीक्षालय में जाऊँ तो कभी दूर कोने की
खाली बैंच को भर दूँ अपनी बेखटकी इच्छाओं से
इतनी रात गए
सूने प्लेटफ़ार्म पर समझ न ले कोई ‘ऐसी-वैसी’
मैं ‘ऐसी-वैसी’ न समझी जाऊँ और
नुक्कड़ की इकलौती गुमटी पर चाय पीते
इत्मीनान से खींच सकूँ आधी रात का चित्र
क्षितिज के भी पार जा सके मेरी आँख
एक दृश्य रचने के लिए
मिलें मुझे भी पर्याप्त शब्द और रंग।

ज़रूरत न हो
आधी रात में हाथ में पत्थर लेकर चलने की
आधी रात हो और जीने का पूरा मन हो
कोई मुझे देखे तो देखे एक नागरिक की तरह
यह देह भी क्या तुच्छ चीज़ है
बिगाड़कर रख दिये जिसने नागरिक होने के सारे अर्थ।

उठती है रीढ़ में एक सर्द लहर
कैलेंडर, होर्डिंग्स, विज्ञापन, आइटम साँग
परदे पर दिखती सुन्दर बिकाऊ देह
होर्डिंग्स पर पसरे देह के सौन्दर्य से चौंधियाती हैं आँखें
देखती हूँ जितना आँख उठाकर
झुकती जाती है उतनी ही रीढ़
फिरती हूँ गली-गली
रीढ़हीन आत्मा के साथ चमकती देह लिए
जाने कौन कब उसे उघाड़कर रख दे
तिस पर ज़माने को पीठ दिखाते
आधी रात में
बेखटके घूमकर पानी को आकार देना चाहती हूँ मैं।