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बेख़बर अपने सितम से यह जहाँ क्यूँ हो गया / ज़ाहिद अबरोल
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बेख़बर अपने सितम से यह जहां क्यूं हो गया
और मैं ख़ामोश, तन्हा, बेज़बां क्यूं हो गया
कल तो यह पैदा हुआ तेरी इनायत से मगर
आज ही तेरी तरह यह ग़म जवां क्यूं हो गया
तेरा सूरज ज़िन्दगी मेरी का सूरज तो नहीं
कल भी निकलेगा दुखी ऐ आस्मां! क्यूं हो गया
बख़्शिशें दोनों हैं तेरी पाक लेकिन ऐ ख़ुदा!
इश्क़ रूस्वा, हुस्न यूं बेमिहरबां क्यूं हो गया
ख़स्तगी के दौर में जो कुछ भी “ज़ाहिद” से हुआ
उससे मत पूछो कि कैसे, क्या, कहां, क्यूं हो गया
शब्दार्थ
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