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बेचैन उत्तरकाल / शुभम श्रीवास्तव ओम

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दूर तक केवल घना आकाश
उलझन, आँधियों के दिन
रेत की फिसलन समेटे
मुट्ठियों के दिन ।

शीतयुद्धों में झुलसता
चीख़ता बेचैन उत्तरकाल,
एक लँगड़ी शान्तिवार्ता
उम्र भर वैचारिकी हड़ताल,

उग रहे हैं युद्धबीजी
संधियों के दिन ।

चाहतें अश्लील, नंगा-
नाच, फाड़े आँख, मन बहलाव,
काटना जबरन अँगूठा
रोप मन में एकलव्यी भाव,

लोग बौने, सिर्फ़ ऊँची-
तख़्तियों के दिन ।।

भावनाएँ असहिष्णु
देह सहमी, काँपता कंकाल,
बुल-बीयर-सेंसेक्स
उथली रात, उबली नींद, आँखें लाल,

ड्रॉप कालें और बढ़ती
दूरियों के दिन ।