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बेचैन हो रहा हूँ, बेसब्र हो रहा हूँ / डी. एम. मिश्र
Kavita Kosh से
बेचैन हो रहा हूँ, बेसब्र हो रहा हूँ
किससे कहूँ मैं यारो आपा भी खो रहा हूँ
पाँवों की क्या ख़ता है, मंज़िल से क्या गिला है
होना तो था सफ़र में लेकिन मैं सो रहा हूँ
कौए ने कर दिया था ऊपर से बीट मुझ पर
सालों से अपना दामन मल-मल के धो रहा हूँ
कब तक चलेगा ऐसे कोई मुझे बताये
सब कर रहे मज़े हैं मैं बोझ ढो रहा हूँ
है सोच अपनी- अपनी इतना ही मान लीजै
बोने दो उनको काँटे, मैं फूल बो रहा हूँ
हर दर्द अब लिखा हो चेहरे पे क्या ज़रूरी
बाहर से हँस रहा पर भीतर से रो रहा हूँ