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बेज़ुबानों पर रहम / महरूम

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मदीने मे मशहूर थी एक बुढ़िया
समझते थे सब उसे नेक बुढ़िया
वो ख़ुश खल्क थी और शीरीं ज़ुबां थी
अजीज ए दिल ए तिफ्लो पीरो जवाँ थी
मदीने की सब बेटियाँ और माएँ
किया करती थीं उससे हासिल दुआएँ
क़ज़ारा पयामे अजल उसको आया
हर एक शख़्स ने सोग उसका मनाया
मिली ख़ाक में गरचे बुढ़िया बिचारी
रहा मुद्दतों ज़िक्र ए ख़ैर उसका जारी

यक़ीं था ये सबको कि मगफूर होगी
खयाबान ए जन्नत में मसरूर होगी

किसी ने पयंबर से इक रोज़ पूछा
कि हज़रत वो मशहूर ओ मारूफ बुढ़िया
जिसे याद नेकी से करते हैं सारे
महोसाल जिसने ब-इज़्ज़त गुज़ारे
मआल उसका रौशन करें आप हमपर
कि गुज़री है क्या बाद ए मर्ग उसके दम पर

तबस्सुम किया आपने और न बोले
कि तक़दीर के राज़ को कौन खोले

मुसिर था निहायत वो पुरसंदह लेकिन
न आया नज़र कोई चारा कहे बिन
ये फ़रमाया बुढ़िया की हालत न पूछो
उठाती है वो क्या अजीयत न पूछो

किए की वो अपने सज़ा पा रही है
उसे उसकी तक़सीर पेश आ रही है

सुना ये तो हैरत से उसने कहा यूँ
हुई किस तरह उसकी हालत दीगर गूँ
कहा यूँ पयंबर ने क्या पूछते हो
मआले जन ए पीरह से तुम सबक़ लो
यहाँ पाल रक्खी थी एक उसने बिल्ली
बंधी रहती थी घर में जो भूकी प्यासी
ख़बर उसकी पहरों न लेती थी बुढ़िया
उसे खाना पीना न देती थी बुढ़िया

नतीजा ये है बेज़ुबाँ पर जफ़ा का
कि नाज़िल हुआ क़हर उसपर खुदा का

रवायत ये मन्कूल और मुस्तनद है
पये अहल ए दिल एक रौशन सनद है
जो इंसाँ सितम बेज़ुबाँ पर करेगा
करम उसपे अल्लाह कमतर करेगा।