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बेजान नदियाँ / प्रज्ञा रावत
Kavita Kosh से
कौन सोचता है कि
साल दर साल सूखती
और बेजान होती ये नदियाँ
दरअसल इन्तज़ार कर रही
होती हैं अपनी-अपनी बारिश का
कि कोई बून्द पड़े
उनकी धीमे-धीमे
सूखी हो चली सतह पर
और भाप बन उड़ जाए
उनका अकेलापन
सतह तब कहाँ रह पाएगी
खुद अपनी
हौले-हौले गदराती और
मखमली होती मिट्टी
अचानक फूट पडे़गी
रोक नहीं पाएगी
अपने अन्दर हिलोरते पानी को
और फैल जाएगी
चारों ओर
किसी बेहद ख़ूबसूरत
फूल की ख़ुशबू
की तरह।