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बेझिझक / हेमन्त प्रसाद दीक्षित

Kavita Kosh से
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झिझके हुए शब्द का मुँह धुलवाया / ठीक से अरामकुर्सी पर बैठाया / ताज़गी बरक़रार रखने के लिए काफी पिलायी / और पूछा झिझक के बारे में।

पता चला कि झिझकता रहा शम्बूक का वध करने में / मगर वर्ण-व्यवस्था का क्या होता / पुरोहित चढ़ाए बैठे थे त्योरियाँ / और उस निरपराध का सिर काटने के सिवाय कोई चारा नहीं था।

झिझकना भी कोई वधस्थल है क्या / और वहाँ ले जाया / जाता है शब्द बकरे की तरह।

झिझक गये तो पुरोहितों का ख़ंजर सौंपने वाले / जिन अख़बारों की जलाई जा रही हैं प्रतियाँ / उनके उगले गये ज़हर के सामने टिक नहीं पाओगे।

झिझका रहा था अर्जुन / प्रचारित यही किया गया था / हक़ीक़त जो कुछ भी रही हो / एकदम फ्रंट पर विषैले कर्म / के बारे में कहा जा रहा / था कृष्ण द्वारा।

झिझका हुआ शब्द इस बेबाक़ी से बोला / कि ठिठक गया था वह ऋग्वेद पर ही जाकर / ताड़ लिया गया था तभी / कि बहुत से शैतान-ग्रन्थ बेमानी हो जाएँगे आगे चलकर।

पुरोहितों ने चीख़कर कहा था / साले! शब्द के बच्चे! / उन क़लमों के अन्दर क्यों घुसता है जो नहीं चाहतीं / कि जारी रहे हमारा हज़ारों सालों से चला आया पाखंड / वे भी तो क़लमें हैं / और यक़ीनन बेहतर क़लमें हैं जो मलद्वार में ठोस / और अटके हुए मल के बारे में / कलात्मक ढंग से लिखती रहती हैं।

झिझका हुआ शब्द / अब बेझिझक कह सकता था कि / मुक्तिबोध की कविता के अन्दर फिर प्रवेश किया जा सकता है / सताए गये दलितों को नया सुनहरा सूरज सौंपते हुए।