भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बेटे की पाती माँ के नाम / राजेश श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्षमा करना माँ
बहुत दिन हुए शहर आए, तुझे खत न लिख सका।
माँ तू कैसी है?
क्या अब भी गाँव भर में देवी जैसी है?
तू देख लेना माँ-
मेरा गाँव एक दिन शहर बनेगा,
मेरा यकीन है,
तेरे बाद एक दिन तेरा मंदिर बनेगा।

मैं भी अब बाबू बन गया हूँ माँ,
अक्सर अपने गाँव की बस पकड़ना चाहता हूँ
पर इस शहर की पकड़ बड़ी जादुई है माँ-
चुंबक की तरह पकड़ लेता है।
तू अपने सीने में भींच लेती थी.
ये अपनी खुरदुरी हथेलियों में जकड़ लेता है।

मुझे याद है माँ,
तूने मुझे लेकर पाले थे कुछ सपने,
मगर यहाँ पलती हैं विवशताएं और व्यस्तताएं,
यहाँ की चमचमाती कारें,
गाँव के सोंधे सोंधे सपनों को
कुचलते हुए ऐसे निकल जाती हैं
जैसे बचपन में
बेचारे रमुआ को कुचल गया था
हरिया काका का मरखना बैल।
क्या उस कुचली हुई टांग को
रमुआ आज भी ढोता है माँ?
मुझे याद करके और कौन-कौन रोता है माँ?

माँ धनिया अब कैसी है?
कौन-कौन सा साग ससुराल में राँधती होगी,

हर रक्षाबंधन पर अनायास कंपकंपाने लगते हैं हाथ,
पता नहीं अब राखी किसे बाँधती होगी।
और बता माँ, तेरी खाँसी अब कैसी है?
मैं जब भी शहर से आऊंगा,
तेरे लिए अच्छी सी दवाई लाऊंगा।

माँ मेरे कुछ दोस्त, लिखना चाहते हैं एक किताब-
गाँव पर, गाँव के लोगों और उनके भोलेपन पर,
शहर के सठियाए बुढ़ापे और
गाँव के अल्हड़ बचपन पर।
मैं भी उनके साथ शायद आऊंगा
पर बुरा न मानना माँ,
सबसे सामने तुझे माँ नहीं कह पाऊंगा।
तुझे न मिल सकूं तो घबराना मत
और हाँ, मुझे देखकर
सबके सामने रो जाना मत।
उन लोगों से भले ही नहीं कहूंगा,
पर मैं तो तेरा बेटा ही रहूंगा।

इस खत को किसी अपने से पढ़वा लेना माँ
और लौटती डाक से
मेरे घर के पते पर उत्तर देना।
बहू-बच्चे ठीक हैं,
और कहने को नहीं कुछ विशेष,
पायं लागूं माँ, तेरा बेटा गनेश।