बेतरतीब लतर / सरोज परमार
कोई दोर चला गया बहुत दूर !
जिसकी बाहों के समन्दरों में
मछली सी उतर तैरती थी
जिसकी आँखें मेरे जिस्म की किताब
पर अनवरत झुकी रहती थी
जिसे देख बताशे सी घुलने लगती थी
भीड़ में भी सिसकी खनखनाती हँसी
दिल की परखनली में
एकदम शुद्ध उतरती थीं
आज सारहीन सन्नाता फैल गया है
चारों ओर
रात गहराते ही और गहरा हो जाता है
यह अहसास--
कोई दूर चला गया है,मुझसे दूर, बहुत दूर।
आड़ी तिरछी रेखाएँ
दो बिल्लौरी काँच
धुएँ की हल्की सी लकीर
राशि-राशि पीलापन
उभर आता है।
फूलदान में मुस्कुराते कागज़ी
गुलदाऊदी एकदम झरने लगते हैं
कहीं से ढेर सारी हवा
घुस आती है कमरे में
पर्दों की तरह काँपती हुई
बोल उठती हूँ
कोई दूर चला गया है,दूर चला गया है।
दीवार से चिपका हाथ
अकस्मात
दस्ताने मढ़ी बुच्ची हथेली को छू लेता है
कमरे के सभी बुत
अट्टहास कर उठते हैं
लाखों जोड़ी आँखे मुझे घूरती हैं
मैं सर्द कमरे में भी पिघलने लगती हूँ।
बड़ी बोझिल लगती है
तुम्हारे द्वारा ओढ़ाई संज्ञा
अँगूर की बेतरतीब लतर सी
फैलाती हुई बुदबुदाती हूँ__
अच्छा ही हुआ ! कोई दूर चला गया है
बह्त दूर चला गया है !