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बेनिशान / मृत्युंजय

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क :

गर्द कलेजे में भरती सी उठती सी थमती सी
नुचे परिन्दों की ज़ुबान पर गिरती सी जमती सी
भूरी सी गाढ़ी सी सूखी गति में थिरती सी
दिल के दाग बढ़ाती जैसे दिल को ढँकती सी

का :

रात आँख में थी बिहाग की सर्द लहर, हाँ
खुभ जाए नीले काँटे का बर्क ज़हर, हाँ
हाँ, ऐसे में पानी के ही सपने आए जादू
जाने कितने जुग के भूले अपने आए जादू
 
जादू गिरकर टूटा पत्थर से, फैला मुरझाया जी
बिखरा था जो गुमा यहीं पर, था मेरा सरमाया जी
जी इस खोने से चाहूँ हूँ, बचा रहे खो जाए नहीं
बेचैनी की झील नहाए, सुन्न महल में जाए नहीं

नहीं रात को रोको आशिक़ रहो, नहीं हाँ
नहीं कुफ़्र की बात पियारे करो, नहीं हाँ

कि :

अपनी ही राह चले जाते हों गोया
छुड़ाके बाँह कहीं जाते हों गोया
गोया सियाहियों में गिरे हों ख़याल की
ख़्वाब महबूब बने जाते हों गोया

की :

आसमान में याद का दरख़्त उलटा खड़ा था
कत्थई रँग डूबती थी घास वस्ल का क़िस्सा पड़ा था
थम गई करुणा ठिठककर रास्ता पिंजर मढ़ा था
वह हरफ़ जो मिट गया किसने पढ़ा था

कु :

शीत की अर्ज़ियाँ मुकम्मल थीं शाम ढली
होंठ पर भाप की पँखुड़ियों ने पर खोले
चान्दनी चूम रही पृथ्वी की पेशानी
आग के होने से हुई दुनिया इश्क़ हुआ