भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बेरा ना कद दर्शन होंगे पिया मिलन की लागरही आस / बाजे भगत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बेरा ना कद दर्शन होंगे पिया मिलन की लागरही आस
बिना कंत कामनी न्यूंए, भटके जा सै बारह मास

लग्या चैत चित ना चोले म्हं चतर सज्जन लगे चित चोर
आया बैशाख मुझ बिरहण कै बालम के ना की उठे लोहर
जेठ जिगर पर जुल्म करै नित जालम देरया अपणा जोर
इस गरमी के मांह धूप पड़े पिया किसी ना ठण्डक और
गंगा दशहरा छूट्या जेठ की पिया बिन गइ निरजला ग्यास

आया साढ़ अंगूर अनार पौधों म्हं छाई हरियाली
सामण म्हं साजन साथ नहीं सारी साथण झूलण चाली
भादों से भंवर भटकता घनघोर घटा छाइ काळी
वर्षा रुत की बहार मेरी बालम बिन विरथा जा ली
भादवै की अंधेरी म्हं डर लागे, दिलदार नहीं है दिल के पास

आया आसोज छुट्टी अरसत अष्टमी दशहरे का त्यौहार
कार्तिक म्हं हो कंत बिना करवा चौथ दीवाळी बेकार
मंगसर म्हं मौसम बदल गई मन मेली ना घर मरहम कार
या रितु शरद हो रंग जरद बिना मरद की जो हो नार
साजन बिन सुन्नी सेज पड़ी मेरा देख-देख दिल रहै निराश

पोह का पाळा पल-पल पड़ता पिया बिन कांपै मेरा शरीर
माह म्हं सब मधमाती नारी जर बसंती ओढ़ैं चीर
फागण म्हं फगवा फूल खिलैं बालम संग फागण खेलैं बीर
या रितु बसंत नहीं पास कंथ, बालम बणग्ये संत फकीर
मन मार बैठग्यी थी रानी ‘बाजे भगत’ की बणकै दास