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बेरोजगार पिता के बच्चे / आलोक कुमार मिश्रा

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1,
बेरोजगार पिता की बेटी
देखती है तारों भरे आकाश को
न जाने किस तरह से
कि आकाश बन जाता है एक बगीचा
तारे उसमें लटक रहे फल और खिलौने

बेरोजगार पिता की बेटी
खुश होकर उछलती है
लपकती है एक टूटते तारे को पकड़ने
और गिरती है औंधे मुँह

उसके गिरते ही
धरती बन जाती है एक ब्लैक होल
जिसमें समा जाते हैं
सभी फल और खिलौने।

 2,
बेरोजगार पिता का बेटा
देखता है रोज एक सपना
कि उसके पिता जा रहे हैं काम पर
और लौट रहे हैं वहाँ से
कंधे पर लटकाये एक भरा हुआ झोला

पर वह झोला है या कोई झोल
जैसे ही लपकता है वह उस तक
झोला और सपना दोनों हो जाते हैं गोल।

3,
बेरोजगार पिता के बच्चे
हालाँकि बच्चे ही होते हैं
पर उतने नहीं जितने दूसरे

वे खेलते हुए सिर्फ खेलते नहीं
बल्कि साधे रहते हैं एक अदृश्य संतुलन भी
भले उनके पास खिलौने नहीं होते
पर दूसरों के खिलौनों से भी नहीं खेलते ज्यादा
बहुत अच्छे लगने के बावजूद वे
क्योंकि वे डरते हैं कि कोई उन्हें
'पिता की बेरोजगारी' याद न दिला दे

इसीलिए वे खेलते हैं होकर बेखौफ़
इंसानी दखल से दूर
पूरी पृथ्वी को बनाकर गेंद
दिशाओं को मैदान
और बादलों को साथी

वे त्यौहार घर के अंदर मनाते हैं
बाहर सिर्फ खिड़की से उनकी आँखें आती हैं
देखती हैं नजारे, हुलसती हैं
कुछ देर नाचती-झूमती हैं
पर इससे पहले कि कोई देख ले उन्हें
कुछ याद कर सिमट जाती हैं
उनकी आँखें खिड़की से अंदर की ओर

वे जब जाते हैं बाजार
पिता के काँधे बैठ या पकड़े अंगुली
वे वहाँ चमक-दमक से भरी दुकानों से ज्यादा
देखते हैं पिता का चेहरा
और बघारते हुये चलने लगते हैं
बाजार की हर चीज़ की निस्सारता का गूढ़ दर्शन
तब वे बच्चे नहीं बाप बन जाते हैं
अपने ही बाप के

बेरोजगार पिता के बच्चे
अपनी माँ से सुनते हैं कहानियाँ
राजा-रानी और उनके ऐशो-आराम की
वे हंसते हैं यह सुनकर कि-
राजा-रानी भी परेशान रहते थे
और सोचते हैं कि-अगर वह होते राजा-रानी
तो ठीक कर देते सबकुछ
सोचते-योजना बनाते बहुत बार
वो सो जाते हैं भूखे पेट
और सपने में ही
करने लगते हैं दुनिया दुरुस्त।