रचनहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा रोइ ।
दिल मंदिर मैं पैसि करि, ताणि पछेवड़ा सोइ ॥1॥
भावार्थ - क्या रोता फिरता है खाने के लिए ? अपने सरजनहार को पहचान ले न ! दिल के मंदिर में पैठकर उसके ध्यान में चादर तानकर तू बेफिक्र सो जा ।
भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग ।
भांडा घड़ि जिनि मुख दिया, सोई पूरण जोग ॥2॥
भावार्थ -अरे,द्वार-द्वार पर क्या चिल्लाता फिरता है कि`मैं भूखा हूँ,मैं भूखा हूँ?भांडा गढ़कर जिसने उसका मुँह बनाया, वही उसे भरेगा, रीता नहीं रखेगा ।
`कबीर' का तू चिंतवै, का तेरा च्यंत्या होइ ।
अणच्यंत्या हरिजी करैं, जो तोहि च्यंत न होइ ॥3॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - क्यों व्यर्थ चिंता कर रहा है? चिंता करने से क्या होगा? जिस बात को तूने कभी सोचा नहीं, जिसकी चिंता नहीं की, उस अ-चिंतित को भी तेरा साईं पूरा कर देगा ।
संत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-लेइ ।
साईं सूँ सनमुख रहै, जहाँ मांगै तहां देइ ॥4॥
भावार्थ - संचय करके संत कभी गठरी नहीं बाँधता । उतना ही लेता है, जितने की दरकार पेट को हो । साईं ! तू तो सामने खड़ा है, जो भी जहाँ माँगूँगा, वह तू वहीं दे देगा ।
मानि महातम प्रेम-रस, गरवातण गुण नेह ।
ए सबहीं अहला गया, जबहीं कह्या कुछ देह ॥5॥
भावार्थ - जब भी किसी ने किसी से कहा कि `कुछ दे दो, ' समझलो कि तब न तो उसका सम्मान रहा, न बड़ाई, न प्रेम-रस , और न गौरव, और न कोई गुण और न स्नेह ही ।
मांगण मरण समान है, बिरला बंचै कोई ।
कहै `कबीर' रघुनाथ सूं, मति रे मंगावै मोहि ॥6॥
भावार्थ- कबीर रघुनाथजी से प्रार्थना करता है कि,मुझे किसीसे कभी कुछ माँगना न पड़े क्योंकि माँगना मरण के समान है, बिरला ही कोई इससे बचा है ।
`कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ ।
हरि बिन अपना कोउ नहीं, देखे ठोकि बजाइ ॥7॥
भावार्थ - कबीर कहते हैं - सारे संसार में एक मन्दिर से दूसरे मन्दिर का चक्कर मैं काटता फिरा , बहुत भटका कंधे पर कांवड़ रखकर पूजा की सामग्री के साथ । सारे देवी देवताओं को देख लिया, ठोकबजाकर परख लिया, पर हरि को छोड़कर ऐसा कोई नहीं मिला, जिसे मैं अपना कह सकूं ।