बेस्वाद फल / भोला पंडित प्रणयी
बड़ा बेसबब लगता है आज का माहौल
ऐन्द्रिय सुखार्थ
हमने छिपा लिया है स्वत्व
बड़ा गड्ड-मड्ड हो गया है आज का अस्तित्व,
विरासती अस्मिता
बदलते मौसम
सूखती धाराएँ
अनसुने निरर्थक नारे
अब कहाँ छू पा रहे हैं अवाम को ?
टूटते मुल्क
छूटते आग्नेयास्त्र
दुर्घटनाग्रस्त मौतों, हत्याओं का सिलसिला
आतंकित भूगोल
अब कहाँ छिपा है कोई रहस्य?
टूट रही नीतियाँ
मिट रहा इतिहास
अब कहाँ अच्छा लगता यह लोक ?
सबने खो दी है अपनी पहचान
बड़ा कुंठित हो गया इनसान
सचमुच
अब छा गई हैं काइयाँ-सेवार इस सरोवर में ।
अब न जन्म निरापद
न मृत्यु न यात्राएँ और न इच्छाएँ
फिर कोई कैसे कहे इस लोक को अच्छा ?
अस्तु,
खोजते हैं ग्रह-लोक
क्योंकि कोई करना नहीं चाहता
भाषाई शिरकत का झमेला
उष्ण-शीत के आतंक
अपनी नग्नता, निरीहता
और अकर्मण्यता के बीज से फले
हर पेड़ के बेस्वाद फल अब कौन खाएगा ?