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बेहतर दुनिया के लिए / कर्मानंद आर्य

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माँ के पेट से मरघट तक
कई अनुष्ठान सीखे हैं हमने
छाती ठोककर सरेआम
पटका है तथाकथित पहलवानों को
वे दिन गए जब वे अखाड़े में जीत जाते थे भौंहें हिलाकर
भय दिखाकर खेल खेललेते थे कुश्ती का
पर उन्होंने हमारा धोबियापाट नहीं देखा था
अखाड़े में वे अकेले शिक्षित थे
मिट्टी उनके जबर खेत से लाई जाती थी
चना उनके खेतों में उगता था
गायें उनके घरों में ब्यातीं थीं
उनके खलिहानों में कई औरतों का रक्त चूस लिया जाता था
तब भी वे चुप रहती थीं
उन्हीं का बल था उनकी भुजाओं में
अब वही मिलते हैं अपने पुराने अहाते में
तो बाअदब पूछते हैं
कैसे हो राकेश बाबू
कैसे चल रही है आपकी नूरा-कुश्ती
किसी चीज की कमी तो नहीं
यहाँ के पटवारी आपसे बहुत डरते हैं
मेरे बाबा भी लड़ा करते थे, नामी पहलवान थे
पर अब वे दिन कहाँ
अब तो रहना दूभर कर दिया है नए कठमुल्लों ने
मैं कहता वह जमाना दूसरा था
अब जमाना दूसरा है
समय के साथ बदलना चाहिए खुद
सारे समीकरण बदल रहे हैं
गणित तक बदल चुकी है
आइये! अब हम दोनों को सुलझाने हैं सवाल
दुनिया के कई दुर्गुण दूर हुए हैं
स्वस्थ्य मन से लड़ने पर
जो बाकी हैं उन्हें भी हम कर देंगे बाहर
माँ के पेट से मरघट तक
हमने जो सीखा है उसी को चरितार्थ करना है
हम मिलेंगे तो बनायेंगे बेहतर दुनिया