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बेहतर है मैं करूँ न कोई तब्सिरा अभी / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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बेहतर है मैं करूँ न कोई तब्सिरा अभी।
उँगली दिखा गई है मुझे साहिरा अभी।
इस वास्ते जमी पर उतारा नहीं है चाँद,
बाकी है आफताब से कुछ मश्विरा अभी।
मालिक क़लम को ज़ोर ज़रा और बख्श दे,
पूरा कहाँ हुआ है तेरा तजि़्करा अभी।
लिल्लाह जो गिरा है पसीना है जिस्म का,
आँखों से अश्क मेरी नहीं है गिरा अभी।
हासिल हुआ है जिस्म फ़क़त अब तलक मुझे,
रूहे ग़ज़ल तलाश रहा दिल मेरा अभी।
यूँ मुद्दतों से मश्के़ सुखन है शुरु मगर,
आया नहीं है हाथ ग़ज़ल का सिरा अभी।
जब तक नज़र में क़ैद नजारा ये कर न लूँ,
‘विश्वास’ रुख को जु़ल्फ से रखिये घिरा अभी।