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बेहाल नौनिहाल / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
नहीं बता पाऊँगा तुमसे, जो कुछ भी देखा है
देखा है बच्चों को मैंने भूखे-नंगे सोते
एक खिलौने की ही खातिर रात-रात भर रोते
कहाँ दिखी इनके हाथों पर कहीं भाग्य रेखा है।
मैेंने देखा है बच्चों के अन्न हाट में बिकते
खिचड़ी में कीड़े को पकते, बच्चों को शर्माते
गुरु की गुर्रायी आँखों से सकड़दम्म थर्राते
तन्दूरी की जगह करों को तन्दूरे पर सिंकते ।
मैंने देखा है बच्चों को ईंटों के भट्ठों में
कालीनों पर पड़े हुए हैं बच्चों के कंकाल
नवजातों की खींच रहे हैं श्वान कहीं पर खाल
जिसका कुछ उल्लेख नहीं है सरकारी पट्टों में।
मैंने मरा हुआ पाया है सूली पर अपने को
किसने लाठी से चूरा है पाटल के सपने को ।