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बे-तरह जागती हैं ग़र आँखें / कैलाश झा 'किंकर'
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बे-तरह जागती हैं ग़र आँखें
झेलती नींद रात-भर आँखें।
लब पर इन्कार की ही भाषा, पर
दे रहीं प्यार की ख़बर आँखें।
मुझपे सबकी निगाह रहती हैं
और मेरी हैं आप पर आँखें।
काम भी ठीक से नहीं होता
पालती बे-वजह जो डर आँखें।
युद्ध हथियार से भले लड़िये
रखतीं दुश्मन पर तो नज़र आँखें।
आपके ग़म का है असर "किंकर"
हो गयीं आँसुओं से तर आँखें