बे-मेहर कहते हो उसे जो बे-वफ़ा नहीं / मीर 'तस्कीन' देहलवी
बे-मेहर कहते हो उसे जो बे-वफ़ा नहीं
सच है के बे-वफ़ा हूँ मैं तुम तुम बे-वफ़ा नहीं
उक़्दा जो दिल में है मेरे होने का वा नहीं
जब तक के आप खोलते ज़ुल्फ़-ए-दोता नहीं
अय्यारी देखना जो गले मिलने को कहो
कहता है मैं तो तुम से हुआ कुछ ख़फ़ा नहीं
अश्कों के साथ क़तरा-ए-ख़ूँ था निकल गया
सीने में से तो दिल को कोई ले गया नहीं
जलता है सादा-लौही पे क्या अपनी जी मेरा
दिल ले के अब जो बात वो करता ज़रा नहीं
वो पुर-ख़तर है वादी-ए-उल्फ़त के राह में
कहते हैं ख़िज़्र हाए कोई रह-नुमा नहीं
करता हूँ तेरी जु़ल्फ़ से दिल का मुबादला
हर-चंद जानता हूँ ये सौदा बुरा नहीं
कैसे वो तल्ख़-तर हैं मेरे शोर-ए-इश्क़ से
क़िस्मत से अपना चाहने में भी मज़ा नहीं
जोश-ए-जुनूँ में सर पे उड़ाएँ कहाँ से ख़ाक
दिल क्या गया गु़बार ही जी में रहा नहीं
देखूँ तो ले है जान मलकुल-मौत किस तरह
तुम वक़्त-ए-मर्ग पास से उठना ज़रा नहीं
‘तस्कीं’ ने नाम ले के तेरा वक़्त-ए-मर्ग आह
क्या जाने क्या कहा था किसी ने सुना नहीं