भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बैठे कहाँ रूठ के ब्रजधाम बसैया / बिन्दु जी
Kavita Kosh से
बैठे कहाँ रूठ के ब्रजधाम बसैया।
दिखला दो दरस अब तो हे ब्रजराज कन्हैया।
है कितनी शर्म गर आनंद उपजाओ न करुनाकर।
पुकारें तुमको और दीन तुम आओ न करुनाकर।
अधम तारे हजारों तुमने लेकिन हमे तारो तो।
तो करुणासिंधु हो भवसिंधु से हमको उबारो तो।
देखें तो भूले कैसे हो हमें गिरवर के उठैया॥
तुम्हारे हर कदम पर हम अपनी आँखें बिछा देंगे।
जो आओगे हमारे पास तो दिल में बिठा लेंगे।
मगर ऐसा न हो यह प्रार्थना बेकार हो जाए।
दिखादो यह झलक अपनी की देदा पर हो जाए।
देख लो यह विनय ‘बिन्दु’ कि फरियाद सुनैया।
दिखला दो दरस अब तो हे ब्रजराज कन्हैया।