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बैर के काँटे निरन्तर बो लिये / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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बैर के काँटे निरन्तर बो लिये
बन्द मन के द्वार अब तो खोलिये

जो तनिक-सा देख हमको हँस दिया
कर भरोसा, हम उसी के हो लिये

तोलिये मन में प्रथम हर बात को
फिर किसी के सामने कुछ बोलिये

कर्णधारों देश के, जागो ज़रा
नींद गफ़लत की बहुत दिन सो लिये

साँस मिल पाई न सुख की आज तक
बोझ कितने ही दुखों के ढो लिये

याद ने उनकी किया बेचैन जब
बैठ कर एकान्त में तब रो लिये

ख़ार नफ़रत के बिछा कर बीच में
विष न प्यासी ज़िन्दगी में घोलिये

कुछ न यह याचक जगत् दे पाएगा
मत कहीं कर-दर भटकते डोलिये

मलिन मन का मैल घुल पाया नहीं
अंग सारे ख़ूब मल-मल धो लिये

जो मिला हमको वफ़ा करके ‘मधुप’
जी रहे हैं हम उसी ग़म को लिये