बोझा उठाए पहाड़ से उतरती स्त्री / सुरेश सेन निशांत
तुम्हारी पीठ पर बोझा है
पहाड़ भर का
पहाड़ भर के दुख हैं
तुम्हारी थकी पीठ पर
पहाड़ भर की चिन्ताएँ हैं
तुम्हारे चेहरे की झुर्रियों में ।
पहाड़ भर की थकान है
तुम्हारे पस्त क़दमों में ।
बुझे हुए चूल्हे की राख-सा
रह गया है तुम्हारी इच्छाओं का रंग
जले हुए जंगलों में
पागलों की तरह पता नहीं क्या
ढूँढ़ती हो हर रोज़
अपने लिए हरे रंग-सी
कभी न मिलने वाली वह ख़ुशी ।
तुम्हारे बेटों को
ले गए हैं बरगलाकर
शहर के खुशनुमा सपने ।
तुम्हारा मर्द
नशे की नदी में डूब कर
ग़ालियाँ बकता
लौट रहा होगा लड़खड़ाते हुए कहीं ।
तुम्हारी देह भरी पड़ी है
उसकी मार के नीले निशानों से
किसी भी पोथी में नहीं है दर्ज
तुम्हारे आँसुओं का कसैलापन
तुम्हारी कराहटों का हिसाब ।
पहाड़ भर का आक्रोश है
तुम्हारे गुस्से में झरती उस गाली में
पहाड़ भर की भूख सजी है
तुम्हारी उस पीतल की थाली में ।
तुम्हारी पीठ पर बोझा है
पहाड़ भर का ।
पहाड़ भर के दुख हैं
तुम्हारी थकी पीठ पर
सूख रही नदियों का विलाप है
तुम्हारे गीतों में ।
तुम्हारी सिसकियों में
तुम्हारा ही नहीं
तुम्हारी बेटियों का भी रोना है