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बोध की ठिठकन- 10 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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मेरी उत्कंठा है
पीड़ा और सृष्टि का उल्लास
मेरी रगों में खेले.

किसी आसन्न-गर्भा
युवती के रोमांच
कल्पना की तरंगों में
उसकी ढीली पड़ती झिझक
रचना के कोनल तंतुओं पर
कुदरत की फिरती उँगलियों के
उष्मल स्पर्श
यह सारा कुछ
मेरे अनुभव में तिरे
उठती ऊँचाइयों के साथ
गहराइयों में तुले
मैं उत्कंठित हूँ.

मेरे मन के
द्वैध बहावों में
रचना के पल
निश्चित ही उर्मिल हैं
उन्हें मेरे जीवन का लहू मिले
मैं आतुर हूँ.

इस आतुरता ने ही
मुझे तुम्हारे समीप खींचा है
क्योंकि मैं
प्रसूति की अनजान
मगर नैसर्गिक रचना के
अनुभूत पलों को
सीधी पहचान के अनुभवों में
जीकर
ऐसी कृति को
प्रकृति की थाली में
परोसना चाहता हूँ
जो अपनी निजी पहचान से
अभिषिक्त तो हो ही
मेरे तईं भी अपरिचित न हो.

बहुत सी बेडौल, अपरिचित,
असंतुलित आकृतियाँ
पेवंदों का अभिषेक लिए
यहाँ लुढ़क रही हैं.

इस जुलूस में
कुछ और जोड़ देना
मुझे मंजूर नहीं.

सृष्टि की संवेदना
मेरे पोरों मे तिरे
मगर मेरा सृष्ट
इतिहास का रेखांकन हो
छलांग लेती
नई जीवन धारा की
नेतृ-बूँद से
अंतरिक्ष के विराट आमंत्रण का
प्रस्फुटन हो.