भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बोध / रफ़ीक सूरज
Kavita Kosh से
जर्जर हो चुके बूढ़े की भाँति
अन्धेरे में पेड़ कैसे
पिलपिले लगने लगे हैं...
टहनियों पर, पत्तों-पत्तों पर
अन्धेरा जम चुका है
ऐसे समय आँखों का खुलना-बन्द होना तक निष्क्रिय !
मगर फिर भी इस घुप्प अन्धेरे में
किस टहनी पर किस पखेरू का
घोंसला है,
इसका बोध
ये पेड़ कैसे रखते हैं?
मराठी से हिन्दी में अनुवाद : भारतभूषण तिवारी