बोलती हुई स्त्रियाँ / मनीष यादव
बोलती हुई स्त्रियाँ
समाज के कौन से भाग के लिए
गले में अटका मछली का काँटा बन गयी
क्या उनमें स्त्रियाँ नहीं थी?
जब अपने रिवाज़ों को ना स्थापित होता देख
नव विवाहिता पर कु-संस्कारी का शाॅल ओढ़ा दिया गया
जैसे अपने बाजू से लगाए किसी पीढ़ीगत श्राप के बोझ से उन्हें मुक्ति मिल गई हो!
अपने न्यूनतम सुख में भी खिलखिला कर हंसने वाली लड़कियाँ
आख़िर अब चुप क्यों है?
एकांत में बैठ विचार कर रही है वो
पैर के सूजन की तकलीफ़ अधिक है
अथवा खुले घर की कोठरी में ख़ुद को बंद महसूस करने की पीड़ा?
जो कभी जहाज उड़ाना चाहती थी
आज वह ख़ुद की नींद उड़ने से परेशान है
पति के संग दुनिया घूमने के सपनों को
सहेलियों को शर्मा कर बतलाने वाली वह लड़की
भीतर से चूर हो जाने के पश्चात अपनी अथाह पीड़ा को किसे बतलाए!
जब वो मौन को त्याग देंगी
और धीमे-धीमे बोल उठेंगी
ख़ुद की देह और मन पर हो रहे अन्याय के विरुद्ध
भोर में चहचहाते पंछियों की तरह..!
मैं सोचता हूँ –
फ़िर क्या होगा?
मुझे बस उनका पता चाहिए
जिन्होंने इन सबके मध्य रहते
स्वयं को कभी न बदलने की कसमें खायी थी
अंततः
अंतिम बार दिखी होंगी वो
किसी मनोरोगी की तरह पहाड़ी पर ले जाते हुए
झाड़-फूंक के लिए!
क्योंकि समाज पर उंगली उठाती स्त्रियाँ
या तो पागल होती हैं,
या होता है उन पर किसी प्रेत का साया।