भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बोलना चाहिए इसे अब /अनीता सैनी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक समय पहले अतीत
ताश के पत्ते खेलता था
नीम तो कभी
पीपल की छाँव में बैठता था
न जाने क्यों ?
आजकल नहीं खेलता
घूरता ही रहता है
बटेर-सी आँखों से
घुटनों पर हाथ
हाथों पर ठुड्डी टिकाए
परिवर्तनशील मौसम
ओले बरसाता
कभी भूचाल लाता
अतीत का सर
फफोलों से मढ़ जाता
धूल में सना चेहरा
पेंटिंग-सा लगता
नाक बढ़ती
कभी घटती-सी लगती
पेट के आकार का
भी यही हाल है
पचहत्तर वर्षों से पलकें नहीं झपकाईं
बोलना चाहिए इसे अब
नहीं बोलता।
वर्तमान सो रहा है
बहुत समय से
आजकल दिन-रात नहीं होते
पृथ्वी एक ही करवट सोती है
बस रात ही होती है
पक्षी उड़ना भूल गए
पशु रँभाना
दसों दिशाएँ
एक कतार में खड़ी हैं
मंज़िल एक दम पास आ गई
जितना अब आसान हो गया
न जाने क्यों इंसान भूल गया
वह इंसान है
रिश्ते-नाते सब भूल गया
प्रकृति अपना कर्म नहीं भूली
हवा चलती है
पानी बहता है पेड़ लहराते हैं
पत्ते पीले पड़ते हैं
धरती से नए बीज अंकुरित होते हैं
वर्तमान अभी भी गहरी नींद में है
उठता ही नहीं
उसे उठना चाहिए
दौड़ना चाहिए
किसी ने कहा बहकावे में है
स्वप्न में तारों से सजा
अंबर दिखता है इसे
मिनट-घंटे बेचैन हैं वर्तमान के
मनमाने के व्यवहार से
अगले ही पल
यह अतीत बन जाता है
फिर घूरता ही रहेगा
बटेर-सी आँखों से
घुटनों पर हाथ
हाथों पर ठुड्डी टिकाए।