भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ब्रजनारी पथिक संवाद / सूरदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तब तैं बहुरि न कोऊ आयौ ।
वहै जु एक बेर ऊधौ सौं, कछु संदेसौ पायौ ॥
छिन छिन सुरति करत जदुपति की, परत न मन समुझायौ ।
गोकुलनाथ हमारैं हित लगि, लिखि हू क्यौं न पठायौ ॥
यहै विचार करौं धौं सजनी, इती गहरु क्यौं लायौ ।
सूर स्याम अब बेगि न मिलहू, मेघनि अंबर छायौ ॥1॥

बहुरौ हो ब्रज बात न चाली ।
वहै सु एक बेर ऊधौ कर, कमल नयन पाती दै घाली ॥
पथिक तिहारे पा लागति हौं, मथुरा जाहु जहाँ बनमाली ।
कहियौ प्रगट पुकारि द्वार ह्वै, कालिंदी फिरि आयौ काली ॥
तब वह कृपा हुती नँदनंदन , रुचि रुचि रसिक प्रीति प्रतिपाली ।
माँगत कुसुम देखि ऊँचे द्रुम, लेत उछंग गोद करि आली ॥
जब वह सुरति होति उर अंतर, लागति काम बान की भाली ।
सूरदास प्रभु प्रीति पुरातन , सुमिरत दुसह, सूल उर साली ॥2॥

तुम्हरे देस कागद मसि खूटी ।
भूख प्यास अरु नींद गई सब, बिरह लयौ तन लूटी ॥
दादुर मोर पपीहा बोले, अवधि भई सब झूठी ।
पाछैं आइ तुम कहा करौगे, जब तन जैहै छूटी ॥
राधा कहति सँदेस स्याम सौं, भई प्रीति की टूटि ।
सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन बिनु, सखी करति हैं कूटि ॥3॥

पथिक कह्यौ ब्रज जाइ, सुने हरि जात सिंधु तट ।
सुनि सब अंग भए सिथिल, गयौ नहिं बज्र हियौ फट ॥
नर नारी घर-घरनि सबै यह करतिं बिचारा ।
मिलिहैं कैसी भाँति हमैं अब नंद कुमारा ॥
निकट बसत हुती आस कियौ अब दूरि पयाना ।
बिना कृपा भगवान उपाइ न सूरज आना ॥4॥

नैना भए अनाथ हमारे ।
मदनगुपाल उहाँ तैं सजनी, सुनियत दूरि सिधारे ॥
वै समुद्र हम मीन बापुरी, कैसे जीवैं न्यारे ।
हम चातक वे जलद स्याम-घन, पियतिं सुधा-रस प्यारे ॥
मथुरा बसत आस दरसन की, जोइ नैन मग हारे ।
सूरदास हमकौ उलटी बिधि, मृतकहूँ तैं पुनि मारे ॥5॥

उती दूर तैं को आवै री ।
जासौं कहि संदेस पठाऊँ, सो कहि कहन कहा पावै री ॥
सिंधु कूल इक देस बसत है, देख्यो सुन्यौ न मन धावै री ।
तहँ नव-नगर जु रच्यौ नंद-सुत , द्वारावति पुरी कहावै री ॥
कंचन के बहु भवन मनोहर, रंक तहाँ नहिं त्रन छावै री ।
ह्वाँ के बासी लोगनि कौं क्यौं, ब्रज कौ बसिबौं मन भावै री ॥
बहु बिधि करतिं बिलाप बिरहनी, बहुत उपायनि चित लावैं री ।
कहा करौं करतिं बिलाप बिरहनी, बहुत उपायनि चित लावैं री ।
कहा करौं कहँ जाउँ सूर प्रभु, को हरि पिय पै पहुँचावै री ॥6॥

हौं कैसौं कै दरसन पाऊँ ।
सुनहु पथिक उहिं देस द्वारिका जौ तुम्हरैं सँग जाऊँ ॥
बाहर भीर बहुत भूपनि की, बूझत बदन दुराऊँ ।
भीतर भीर भोग भामिनि की, तिहि ठाँ काहि पठाऊँ ॥
बुधि बल जुक्ति जतन करि उहिं पुर, हरि पिय पै पहुँचाऊँ ।
अब बन बसि निसि कुंज रसिक बिनु, कौनैं दसा सुनाऊँ ॥
श्रम कै सूर जाउँ प्रभु पासहिं, मन सैं भलैं मनाऊँ ।
नव-निकोर मुख मुरलि बिना इन, नैननि कहा दिखाऊँ ॥7॥

तातें अति मरियत अपसोसनि ।
मथुरा हु तैं गए सखी री, अब हरि कारे कोसनि ॥
यह अचरज सु बड़ौ मेरैं जिय, यह छाड़नि वह पोषनि ।
निपट निकाम जाति हम छाँड़ी, ज्यौं कमान बिन गोसनि ॥
इक हरि के दरसन बिनु मरियत, अरु कुबिजा के ठोसनि ।
सूर सु जरनि उपजी जो, दूरि होति करि ओसनि ॥8॥

माई री कैसैं बनै हरि कौ ब्रज आवन ।
कहियत है मधुवन तैं सजनी, कियौ स्याम कहुँ अनत गबन ।
अगम जु पंथ दूरि दच्छिन दिसि, तहँ सुनियत सखि सिंधु लवन ।
अब हरि ह्वाँ परिवार सहित गए, मग मैं मार्यौ कालजवन ॥
निकट बसत मतिहीन भईं हम, मिलिहुँ न आईं सुत्यागि भवन ।
सूरदास तरसत मन निसि-दिन, जदुपति लौं लै जाइ कवन ॥9॥

सुनियत कहुँ द्वारिका बसाई
दच्छिन दिशा तीर सागर कैं, कंचन कोटि गोमती खाई ॥
पंथ न चलै सँदेस न आवै, इतनी दूर नर कोऊ ना जाई ।
सत जोजन मथुरा तैं कहियत, यह सुधि एक पथिक पै पाई ॥
सब ब्रज दुखी नंद जसुदा हू, एक टक स्याम राम लव लाई ।
सूरदास प्रभु के दरसन बिनु, भई बिदित ब्रज काम दुहाई ॥10॥

बीर बटाऊ पाती लीजौ ।
जब तुम जाहु द्वारिका नगरी, हमरे गुपालहिं दीजौ ॥
रंगभूमि रमनीक मधुपुरी, रजधानी ब्रज की सुधि कीजौ ।
छार समुद्र छाँड़ि किन आवत, निर्मल जल जमुना कौ पीजौ ॥
या गोकुल की सकल ग्वालिनी, देतिं असीस बहुत जुग जीजौ ।
सूरदास प्रभु हमरे कोतैं, नंद नंदन के पाइँ परीजौ ॥ 11॥