ब्रज दर्शन की रेल / सरोजिनी कुलश्रेष्ठ
चलती ब्रज दर्शन की रेल।
राधारानी नाम इसका,
चलती रेलम पेल॥ चलती
यह गोकुल है लीला जिसमे
करते थे नन्दलाला
मटकी फोड़ दही फैलाते,
हँसती थी ब्रज बाला॥
ऐसे ही हर दम करते थे
नटखटपन के खेल
'चल री रेल' पहुँच गोवर्धन।
पर्वत है यह प्यारा,
किया इन्द्र ने कोप भयंकर,
डूब गया ब्रज सारा,
उठा लिया पर्वत उँगली पर
कैसा अद्भुत खेले॥
जहाँ रही थी राधारानी,
गाँव वही बरसाना।
नन्द गाँव है उधर जहाँ से,
रहता आना जाना।
पावन भूमि प्रेम उपजाती
राधा-माधव मेल॥ चलती
ब्रज के वन भी कैसे सुन्दर,
लो वृन्दावन आया।
ऐसा लगता वेणु बजाता,
कान्हा अब मुस्काया।
रँभा रँभा कर लौट रही हैं
गउएँ रेलम पेल॥
सुन्दर और अनोखे देखो,
मन्दिर वृन्दावन के,
रंग बिहारी जी गोविन्द जी।
ठाकुर कान्हा सबके।
राधा वृन्दावनेशवरी हैं,
कृष्ण कन्हैया छैल॥
छक छक रेक चलती आगे को
बहती जमुना मैया
तट पर बसी हुई है मथुरा,
जन्में जहाँ कन्हैया॥
कंस मार दु: ख हरण किया था
किया कृष्ण ने खेल॥