ब्रज प्यारा रे / दयाराम
ब्रज प्यारा रे बैकुंठ नहीं आना,
भाये न मुझे चतुर्भुज होना,
वहाँ श्रीनंदकुँवर कहाँ से लाना ? ब्रज प्यारा रे...
चाहिये ललितत्रिभंगी<ref>खड़े होने की वह मुद्रा जिसमें पाँव, कमर, गरदन थोड़े टेढे़ होते हैं यानी कृष्ण का बाँसुरी वादन</ref> मुझे गिरधारी,
संग चाहिये श्रीराधा प्यारी,
बिने उनके जुड़े ना आँख हमारी । ब्रज प्यारा रे...
वहाँ श्रीजमुना गिरिवर हैं नहीं,
मुझे आसक्ति बहुत इन दोनों की
बिन इनके प्राण प्रसन्न रहे नहीं । ब्रज प्यारा रे...
वहाँ श्रीवृंदावन रास नहीं,
ब्रजवनिता विलास नहीं,
विष्णु वेणु वादन का अभ्यास नहीं । ब्रज प्यारा रे...
जहाँ वृक्ष-वृक्ष पर वेणुधारी ,
पात-पात हैं हरि भुजचारी ,
एक ब्रज रज पर चौमुक्ति<ref>सायुज्य, सारूप्य, सालोक्य, सानित्य</ref> वारी । ब्रज प्यारा रे...
जहाँ बसने शिव सखीरूप हुए,
अज अब भी ब्रज रज को तरसते,
उध्दव-से वे तृण कृष्ण हुए । ब्रज प्यारा रे...
सुख स्वर्ग का कृष्ण बिना कड़वा,
मुझे न भाये ब्रह्मसदन सूना,
धिक सुख !जिसे पाना फिर लौटना ! ब्रज प्यारा रे...
क्या करूँ श्रीजी मैं सायुज्य<ref>वह मुक्ति जिसमें जीवात्मा परमात्मा में लीन हो जाती है</ref> पाकर ?
एकाकार में जो तुम न रहो स्वामी !
दासत्व में भी भला मुझे क्या कमी ? ब्रज प्यारा रे...
ब्रजजन बैकुंठ सुख देख लौटे,
न भाया तो ब्रह्मानंद मे लीन हुए,
घर स्परूपानंद सुख अति भाये ! ब्रज प्यारा रे...
गुरुबल से गोकुलवासी होंगे,
श्रीवल्लभ शरण में नित्य रहेंगे,
दया प्रीतम के रसयश गायेंगे ! ब्रज प्यारा रे...
मूल गुजराती भाषा से अनुवाद : क्रान्ति कनाटे