ब्रेक-अप-6 / बाबुषा कोहली
वो लम्बी दूरी का यात्री है
हर स्टेशन पर उतर जाता, ठहर लेता है कुछ देर
फिर चल देता है
इतने लम्बे सफ़र की कुछ ख़बर मुझे भी है
वक़्त उसे अपनी अहमियत बताना चाहता
और वो वक़्त को इतनी फ़ालतू की चीज़ समझता कि 'टाइमपास' करने लगता
वक़्त बेरहम ने उसे लोहे के चने पेश किए
मगर वक़्त को मुँह चिढ़ाने के लिए उसने मूँगफलियाँ खाईं और हवा में छिल्के उड़ाए
कितनी बार बेस्वाद चाय चखी, छोड़ी
कितने कुल्हड़ फोड़े
टिकट चेकर पूछता है , "कहाँ ?"
"कहीं भी" उसकी आँखें कहतीं
क़ीमत देता है वो चलने की
क़ीमत लेता है साथ चलने की
कुछ शहर उसका नाम पुकारते हैं और अपने भीतर बुला लेते हैं
मनमौजी-सा चला जाता है
इन मुसाफ़िरों के कोई घर नहीं होते
सरायों में उम्र काट देते हैं
गुज़र जाते हैं एक बार जिन सरायों को छोड़कर
पलट कर नहीं देखते फिर कभी
किसी-किसी सराय में एक रात की रौनक ही इतनी तेज़ होती है
कि उम्र भर भी कोई घर इतनी रौशनी नहीं उगल सकता
घर कब सराय हो जाते हैं
सराय कब घर, पता भी नहीं चलता
और एक वो ! कि कहीं नहीं ठहरता
छूट चुके स्टेशन भी कभी मुड़ कर नहीं देखता
वो वक़्त जो गुज़र गया जाने कहाँ गया है
वो वक़्त जो आया नहीं जाने कहाँ रुका हुआ है
मेरी पसलियों में जो जमा है कौन सा वक़्त है
दिल धक् धक् में नहीं टिक टिक में धड़कता है
किसके सम्मोहन के भय से भागा है वो
किसकी प्रीत के तप में जल कर भागा है वो
किसको खोजता है वो स्टेशन-दर-स्टेशन
किससे बचता है वो जीवन-दर-जीवन
क्यों वो चला जाना चाहता है 'कहीं भी'
क्यों नहीं ठहर पाता कहीं भी
पूछना मत कोई, उन बेबस आँखों को पढ़ना
बस ! उन हब्शी इशारों को पढ़ना
वो आदमी जिस ट्रेन में सवार है, क्या वो 'लेट' होती है कभी
चौदह से पचास की उम्र तक में पड़े उसके सफ़र के हर स्टेशन पर मैं खड़ी हूँ
तेज़ दौड़ती घड़ियों को चुनौती हूँ
उस भागते हुए आदमी का मैं एक बेशरम इन्तज़ार हूँ