भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भगत गवईयै / निशान्त
Kavita Kosh से
केसेटों-चैनलों के
इस जमाने में भी
बचे हुए हैं लोक में कुछ
भगत गवईयै
जो रचते हैं
ढोलक-डेरूँ, डमरूद्ध जैसे
वाद्यों से
ऐसा संगीत कि
नाचने लगती है
सुनने वालों की रग-रग
पड़ौसी के यहां आए थे वे
इरादा था कि
नहीं जाऊॅंगा
लेकिन नींद उचटी
मीठी राग से तो
रोक न सका अपने आपको
सोचा-दर्शन न करना
कृतघनता होगी
क्या-क्या नहीं था
उनके गान में
सारा लोक भरा था
गायों के गवालों से लेकर
शिव-पार्वती तक
उनके कंठ बिराजे थे
बिम्मों उपमा-उपमाओं की तो
बात ही क्या
हरे-भरे बाग थे
काली कोयल थी
शतरंज का एक रूपक था
जिसमें चांद-सूरज दो
पासे थे
गगन मण्डल के तारे
मोहरे थे
सचमुच ही उनके
गीत-संगीत में था
जादू।