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भगवान / देवेंद्रकुमार
Kavita Kosh से
आधी रात के बाद
काम से लौटते हुए
रमिया ने देखा था
भगवान को-
खंडहर दीवार का आला
कुछ धब्बे
रहे होंगे सिंदूरी कभी
मरी हुई पंखुरियां
अतीत प्रतिष्ठा की स्मृति।
ठिठक गई
आंचल से बुहारा
पोंछा-पुचकारा
सिर टिकाए रोती रही
देर तक-
क्या कहे
किस टूटे विश्वास की याद दिलाए!
चढ़ाया अश्रु-अर्ध्य
टटोला
जैसे बरसों बाद फिरे बेटे को
मां देखे-भाले
छू-चूमकर
अपनी थाती संभाले।
बतियाते रहे दोनों देर तक
‘क्यों ऐसे हो गए भगवान!’
किसी को कुछ न दे पाने का
दंड पा रहे हो
तुम तो
मेरी तरह हुए जा रहे हो।