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भय, शंकाओं और आत्‍मालोचना भरी एक प्रतिकविता / कात्यायनी

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एक बर्बर समय के विरुद्ध युद्ध का हमारा संकल्‍प
अभी भी बना हुआ है और हम सोचते रहते हैं कि
इस सदी को यूँ ही व्‍यर्थ नहीं जाने दिया जाना चाहिए
फिर भी यह शंका लगी ही रहती है कि
कहीं कोई दीमक हमारी आत्‍मा में भी तो
प्रवेश नहीं कर गया है ? कहीं हमारी रीढ़ की हड्डी भी
पिलपि‍ली तो नहीं होती जा रही है ?
कहीं उम्र के साथ हमारे दिमाग पर भी तो
चर्बी नहीं चढ़ती जा रही है ?

डोमा जी उस्‍ताद अब एक भद्र नागरिक हो गया है
कई अकादमियों और सामाजिक कल्‍याण संस्‍थाओं
और कला प्रतिष्‍ठानों का संरक्षक, व्‍यवसायी
राजनेता और प्राइवेट अस्‍पतालों-स्‍कूलों का मालिक।
मुक्तिबोध के काव्‍यनायक ने जिन साहित्यिक जनों और कलावन्तों को
रात के अन्धेरे में उसके साथ जुलूस में चलते देखा था,
वे दिन-दहाड़े उससे मेल-जोल रखते हैं
और इसे कला-साहित्‍य के व्‍यापक हित में बरती जाने वाली
व्‍यावहारिकता का नाम देते हैं।

वयोवृद्ध मार्क्‍सवादी आलोचक शिरोमणि आलोचना के सभी प्रतिमानों को
उलट-फेर रहे हैं ताश के पत्‍तों की तरह
और आर०एस०एस० के तरुण विचारक की पुस्‍तक का
विमोचन कर रहे हैं।
मार्क्‍सवादी विश्‍लेषण पद्धति के क ख ग से अपरिचित
युवा आलोचकों की पीठ थपकते-थपकते
दुखने लगती है।
कवि निर्विकार भाव से चमत्‍कार कर रहे हैं.
कहानियॉं सिर्फ़ कहानीकार पढ़ रहे हैं।
फिर भी सबकुछ सब कहीं ठीक-ठाक चल रहा है।
हर शाम रसरंजन हो रहा है,
बचत और सुविधाएँ लगातार बढ़ रही हैं ।
बीस रुपए रोज़ के नीचे जीने वाली 70 प्रतिशत आबादी
और लाखों किसानों की आत्‍महत्‍याओं और करोड़ों
कुपोषित बच्‍चों के बारे में सोचने-बोलने-लिखने वाले
अर्थशास्‍त्री-समाजशास्‍त्री ऊँचे संस्‍थानों और एन०जी०ओ०
में बिराजे हुए धनी मध्‍यवर्गीय अभिजन बन चुके हैं.
विद्वान मार्क्‍सवादी तान्त्रिक कूट भाषा में आज की दुनिया
की समस्‍याओं पर लिख-बोल रहे हैं।

निश्‍चय ही बदलाव के लिए सक्रिय लोगों की दुनिया भी है,
पर वहॉं विचारहीनता और विभ्रम हावी है,
मुक्‍त चिन्‍तन का प्रभाव है या लकीर की फकीरी है.
गतिरोध वहॉं भी विघटन को गति दे रहा है ।
इस ठण्‍डे समय में हमें भी भय तो रहता ही है
कि हमारी आत्‍माओं में कहीं से निश्चिन्‍तता या
ठण्‍डापन घुसपैठ न कर लें.
ठीक-ठाक खाते-पहनते-ओढ़ते-बिछाते हुए
कहीं हमारे भीतर भी और बेहतर जीवन जीने का
जुगाड़ बैठाने की चालाकी न घर कर ले।
कहीं ऐसा न हो कि हम अनुभव और उम्र की दुहाई देते-देते
एक निरंकुश अड़ि‍यल नौकरशाह बन जाएँ
और कुर्सियों में चर्बीली देह धॅंसाए हुए
युवा साथियों को गुजरे दिनों के संस्‍मरण सुनाने
और निर्देश जारी करने में अपने जीवन की
सार्थकता समझने लगें।
कहीं ऐसा न हो कि हम मूर्ख निरंकुश बन जाएँ
और मूर्ख निरंकुशता की प्रतिक्रिया अक्‍सर
प्रबुद्ध निरंकुशता के रूप में भी विकसित होती है.
एक ठण्‍डे समय में, आने वाले युद्ध की
ज़रूरी तैयारी करते-करते भी
कब कमज़ोर पड़ जाती है सादा जीवन और कठोर परिश्रम की आदत
और ढीली हो जाती है जनता में अविचल आस्‍था,
और हमें पता भी नहीं चलता
और जब हम बदल चु‍के होते हैं
तो अपने बदलाव के बारे में सोचने लायक भी नहीं रह जाते.
निश्‍चय ही यह मनुष्‍यता का अन्त नहीं है,
लेकिन राजनीतिक शीतयुद्ध अभी लम्‍बा होगा।
कठिन होगा इस दौरान आत्‍मा में और कविता में
ईमानदारी, न्‍यायबोध और साहस की गरमाहट
को बचाए रखना.
ज़रूरी है विचारों और आम लोगों के जीवन के बीच
लगातार होना और कठिन भी।

अपनी शंकाओं, आशंकाओं, भय और आत्‍मालाचना को
अगर बेहद सादगी और साहस के साथ
बयान कर दिया जाए
और कला और शिल्‍प की कमज़ोरियों के बावजूद
एक आत्‍मीय और चिन्तित करने वाली
कामचलाऊ, पठनीय कविता लिखी जा सकती है
भले ही वह महान कविता न हो।