भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भला कह सकोगे क्या? / नीता पोरवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कह सकोगे क्या?
हम मेहनतकशों की
बाजुओं की ताकत
और ज़ज्बा देख
उद्व्गिन रहते हो तुम
फक्क पड़ जाता है
तुम्हारे चेहरे का रंग
जब पीठ पर दुधमुंहा बांधे
ईंटों के चट्टे उठाये हुए
गूँज उठते हैं गीत
हमारे सूखे पपड़ाए होठों से
हमारी जिजीविषा के साक्षी
हवा में झूलते इतराते
हमारे चुटीले के फुंदने,
रंग बिरंगी चूडियाँ कसे
भट्टी में ईंधन झोंकती हमारी कलाइयाँ
भर देती हैं तुम्हे घोर अचम्भे से
यहाँ तक कि
इस परम सत्य से भी किंचित
अपरिचित नही तुम
कि हमारे क़दमों की आहट बिना
तुम्हारे घरों की
सुबह नही होंती
मूर्तिवत रह जाते हो तुम
जब हमारे बच्चे
पाठशाला की चौखट छुए बगैर
झट बता जाते हैं
हवाओं और मौसमों के मिजाज़
और दुनियादारी के तमाम जोड़ घटाव
हमें पथरीली जमीन पर
खर्राटे लेते देख
आलीशान भवनों में
हिम शिला खण्डों से तैरते
तो कभी साहिल पर
फैन उगलती लहरों से तुम
सफ़ेद लाल पीली गोलियाँ निगलते
गुदगुदे गद्दों पर भी रतजगे करते
अपने शुष्क हुए कंठ को
बार बार तर करते
हमारी बेफिक्री से घबराते हो तुम?
भला कह सकोगे क्या?