भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भले ही / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भले ही --

काटती हों

चेतना को,

दंश जैसी

ये तुम्हारी

डाह-संकेतक

उपेक्षा-बोधनी

दृग-भंगिमाएँ !


भले ही --

सालती हों

मर्म को

उपहास-प्रेरित

ये तुम्हारी

अग्नि-शर-व्यंग्योक्तियों की

क्रूर-धर्मी यातनाएँ !

सामने प्रस्तुत

विकर्षण-युक्त प्रतिमाएँ !

इन्हें पहचानता हूँ,

आदि से इतिहास इनका

जानता हूँ।

है सही उपचार इनका

पास मेरे,

कुछ नहीं बनता-बिगड़ता

आज यदि

ठहरी रहें ये

क्षितिज घेरे !