भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भविष्यत् काल / ‘मिशल’ सुल्तानपुरी
Kavita Kosh से
संदेहों से घिरा परेशान मैं
कभी-कभी उसे मिलने जाता हूँ
सूखे दरिया के किनारे
डूबते सूरज की लाल किरण मं लिपटे हुए
रेतीले पाट पर लेटे होते हैं वे
आज भी वे क़ीमती रेशमी पोशाकों
और मणिनिर्मित आभूषणों से विभूषित हैं
जैसे संपदा ने उस शिशिर से अकड़़े हुए शव को
चेतना का कफ़न ओढ़ाया हो
विशाल रेगिस्तान में भयभीत आहें निरंतर गूँज रही हैं
गुपचुप मैं अपने पोतों की ओर मुड़ता हूँ
उनमें से नन्हे को लेकर हाथों में
मुक्त गगन की ओर निहारता हूँ।