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भाँय भाँय करती दोपहर में / समीर ताँती

भाँय भाँय करती दोपहर में
गाड़ दिया था मुझे

यहीं इसी लखिमी पथार में ।

क्या ढूँढ़ने गई थीं उस दिन
मेरी दो आँखें

तुम्हारी नज़रों के घर ?

घास के मैदान की सिसकी निकल गई थी
पानी थरथर काँपने लगा था

यहीं इसी लखिमी पथार में ।

हवा ने फुसफुसाकर कहना चाहा था
कुछ, जो पहले कभी नहीं कहा गया,

छिपाकर, बहुत छिपाकर ।

चिड़ियाँ भूल गई थीं गाना
सूरज ने शर्म से मुँह छिपा लिया था

यहीं इसी लखिमी पथार में
भायँ भायँ करती दोपहर में।

समीर ताँती की कविता : ’काँह परि जीन जोवा दुपरिया’ का अनुवाद
शिव किशोर तिवारी द्वारा मूल असमिया से अनूदित

कविता की पृष्ठभूमि में १९९० के दशक का लखिमी पथार है, जहाँ अल्फा उग्रवादियों ने सैकड़ों लाशें दबा दी थीं। लखिमी याने लक्ष्मी, पथार माने खेत, मैदान या खुली जगह। यह लखिमी पथार एक संरक्षित वन का अंग था। समीर ताँती के पुरखे उड़ीसा के आदिवासी थे जो चाय के बाग़ानों में काम करने के लिए अँग्रेज़ी अमल में लाए गए थे। आपने रुचि दिखाई, इसलिए यह अतिरिक्त सूचना दे रहा हूँ जिससे अन्य कविताओं को समझने में मदद मिल सकती है। संकुचित अर्थ में असमिया शब्द का प्रयोग करें तो समीर ताँती असमिया नहीं हैं। [असमिया शब्द भाषा और उसके बोलने वाले दोनों के लिए प्रयुक्त होता है]।