भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भाई सच-सच बतलाना / रंजना जायसवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुबह से देर रात तक काम करती
फिर भी न थकती माँ
बेतरह थक जाती
जब पिता प्रेम की जगह
गालियाँ बरसाते
माँ हमें सीने से लगाकर रोती
रोते-रोते सो जाया करती
दागदार होता रहा
माँ का धुला, कलफदार आँचल
हल्दी, तेल, आँसू से
चीकट होती माँ ने
एक दिन माँ से अलग
अपने इंसान होने का
सपना देखा
और उस सपने ने तोड़ दीं
दीवारें
ढा दी छत
पिता तुम्हें लेकर चले गये
माँ रोती रही मुझ अकेली को
सीने से लगाये
इंसान होने का सपना
कलमुंहा लगने लगा
फिर एक दिन जब तुम
पिता की बारात में गये थे
माँ रो रही थी
अपने लिये नहीं
तुम्हारे लिए
धीरे-धीरे माँ ने जीना सीख लिया
देखने लगी सपने जीवन के
उसकी आँखों को भी भाने लगा
एक महबूब चेहरा
अब वह भी शुरू करने जा रही है
एक नया जीवन
मैं खुश हूँ
पर तुम बौखला उठे हो
औरों के साथ
तभी तो वैसा ही
गालियों भरा पत्र
माँ को लिखकर भेजा है
जैसा दिया करते थे पिता
भाई,
क्यों तुम्हें स्वीकार नहीं है
कि माँ नया जीवन जीए
पिता ने तो आदिम हक समझकर
ऐसा किया था
तुम भी तो साक्षी थे
क्या माँ इसलिए ऐसा नहीं कर सकती
कि वह माँ है
सच-सच बताना भाई
माँ क्या इन्सान नहीं होती?
क्या देह पिता की ही होती है
माँ की नहीं?