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भागते-भागते हो गई दोपहर / विजय वाते
Kavita Kosh से
भागते-भागते हो गई दोपहर|
मुँह छुपाने लगी रो पड़ी दोपहर|
सर पे साया उसे जो मिला ही नहीं,
तो सुबह ही सुबह आ गई दोपहर|
ताज़गी से भरे फूल खिलते रहें,
आग बरसती रुआँसी हुई दोपहर|
बूट पोलिश पुरूष कप प्लाटों में गम,
उसकी सारी सुबह खा गई दोपहर|
दिन उगा ही नहीं शाम छोटी हुई,
एक लम्बी सी हँफनी हुई दोपहर|