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भाग्य / निवेदिता झा
Kavita Kosh से
नहीं लिखती
आदिवासी औरतें
रामायण का सार
और महाभारत की बड़ी कहानी
इतना सच महसूस करने के बाद भी
सूरज के उगने और छिपने को बिना देखे
एक ही घर में दो रंग और रूप
डी एन ए रिसर्च को पीछे धकियाते
हडियॉ को मन या बेमन से गले से उतारती है
कहीं पखाल भात खदकता तो
कहीं चावल में कंद-मूल
और महुए के फूल को बाल में लगते ही
शरीर में उतरते जाते हैं गंध
फैल जाता है एकसार जैसे
पडे हो जमीन पर दो अलग
धर्म और मन
वहाँ वह सामना करती है
बाजार के तरह-तरह के गंधो को
वो फिर बाँस की करची को पकड़
कलयुग के भाग्य लिखती है।