भाग 17 / हम्मीर हठ / ग्वाल कवि
कवित्त
भूपति कही यों तबै कन्या अरु रानिन तें,
ठाडे रहैं रन में निसान मेरे जब लौं।
जानियो नृपति को भयो न कछु बार बाँको,
जीवित है, आनँद है, मरत है अब लौं।
गिरैं जो निसान तौ निदान जानि लीजो यहै,
काढ़ि तन प्रान भूप पहुँचे जु रब लौं।
तबै जरि जैयौ, उड़ि जैयौ, गिर जैयौ सबै,
कछु करि जैयौ पै न जैयौ जियो जब लौं॥159॥
दोहा
कहि ऐसे रनिवास तें, आमखास में आय।
कर्यो हुकम सब कटक सों, बाहर चलिये धाय॥160॥
कही मीर मंगोल सों, तुम न चलौ रन माहिँ।
गढ़ में चौकस तुम रहौ, आनँद करौ सदाहिँ॥161॥
लघु नाराच
कही सुपुत्र सों जबै। चलौ जु संग में अबै॥
करोगे बीरता कबै। सँहार सत्रु को सबै॥162॥
दोहा
जाजा बडगुज्जर सु इक, हुतो नृपति के पास।
तासों नृप ने यों कही, तुम ह्याँ करो निवास॥163॥
तुम परदेसी मीत हो, यह मरिबे की बेर।
चाहौ जाव कुटुम्ब में, आके मिलियो फेर॥164॥
तब जाजा ने यों कही, सुनो नृपति महाराज।
सुख में हरदम साथ थे, तज्यौं न दुख में आज॥165॥
जे नौकर स्वामी तजत, महाबिपद के माहिँ।
ते रौरव में जात हैं, जाये द्वै पितु ताहिँ॥166॥
तब भूपति गल लायकै, लियो संग में ताहि।
दै धौंसा बाहर कढ्यो, सबही भरे उमाहि॥167॥
छन्द
चलीं कोतलों की कतारैं घनी हैं।
मनो सोभ की भूमि अबली बनी हैं॥
किते रंग राजे करै हैं सितम जे।
किते रंग कुम्मेत कूदे अदब जे॥168॥
किते ही समुदं सु कूदे समूहं।
किते रंग जदे जमे जाय मूहं॥
किते रंग सुरखो रहे नित्त सुरखे।
किते रंग अबलख लखत तेजु दुरखे॥169॥
किते रंग नुकरे, करै सत्रु टुकरे।
किते रंग मुसकी करैं फैल-फुकरे॥
किते रंग गररा, उडे मानो भररा।
नहीं मुख मुलायम, नहीं मुख के तररा॥170॥
किते तेज ताजी, करत जाय बाजी।
जुदी तुरकियौ की रही छबि बिराजी॥
किते कच्छ देसी, कहामैं सुकच्छी।
बिलायत के केते घनी सोभ अच्छी॥171॥
सजे जीन औ’ जीनपोसं जिनौ पै।
कई मखमली सुर्ख पीरे तिनौ पै॥
कई सब्ज़ नीले कई आसमानी।
नहीं जात जिनकी झलक है बखानी॥172॥
कई पीठ ऊपर खुले कीमखापं।
हवासी किते पिसतई दीह छापं॥
लगे जिनमें असली तिले तेज वाले।
झलाझल प्रकासै जिनो में है आले॥173॥