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भाग 18 / हम्मीर हठ / ग्वाल कवि

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छन्द

कई में कढीं बूँटियाँ छोटि-छोटि।
कई में कढीं बूँटियाँ मध्ध मोटी॥
किते जालदारें जबर जगमगाते।
किते आब महराबदारें दिखाते॥174॥

कई सोसनी बैंजनी चंपई हैं।
कई केसरानी गुलाबी ठई हैं॥175॥

कलंगी रजै सीस पै बादले की।
कई पै परौं की, तिले की, भले की॥
सजै हैकलैं रुक्म की जे गले हैं।
कई पै सुनहरी सुकंठे भले हैं॥176॥

परी टाटबाफी हवाई कई पै।
हलैं लोल लड़ियाँ जवाहर छई पै।
कई खूब गजगाह से सोहते हैं।
कई जाल बुरखे मढे सोहते हैं॥177॥

गुँथी जिनकी आलैं दरयाइ खासी।
लगे जिनमें गोटे किनारी प्रकासी॥
परी जालदारैं जु सेली जिनौ पै।
मनो काम ने जाल डार्यो तिनो पै॥178॥

सजे साज हर इक तरह के जड़ाऊ।
असीले अनेकं चले सब अगाऊ॥
बँधी बाग डोरैं कलावंतुओं की।
लिये जाय जेते सबी गुलरुओं की॥179॥

भरैं लंबिया हाथ बीसं-पचीसं।
कुदैं बे-कुदाये बडे हैं छबीसं॥
जमै ये जमाये जमा में जसीले।
सभी तन-बदन में कसे हैं कसीले॥180॥

हिरन देखि हारों में हारे फिरे हैं।
हिनक सुन जिनों की सितारे गिरे हैं॥
पवन जिनसे डरकै कई रूप धरती।
कभी गर्म सीतल कभी वारि झरती॥181॥

बँधे नाल मजबूत सुंभो में जिनके।
परैं भूमि ऊपर बडे सुंभ तिनके॥
भरमार टापैं जमाते जहाँ पै।
ताल औ’ तलैया प्रगटैं तहाँ पै॥182॥

चले हैं अखंडं वितंडं महा ही।
उमंडं प्रचंडं घमंडं घनाही॥
बडत्रे सुंड रंडं करैं खंड खंडं।
बड़े उच्च मस्तक छुयें मारतंडं॥183॥

पडी झूल जिनपै बनातैं सुरंगी।
जँजीरैं रजत की पडी सुंड-संगी॥
दिपै हेम को भानु ऊपर ललाटं।
लई रोकि जिनने सकल सुर्ग बाटं॥184॥

स्रवै धार मद की सु-गंडस्थली ते।
करैं गुंज पुंजं मलिंदं भलीते॥
सज्यौ सीस ऊपर महावत रजे है।
कई पर निसाने सुरंगी सजे हैं॥185॥

चले झनझनाते, कई गोल रथ के।
भये काम तिनमें, बडे हैं अरथ के॥
कतारें चलीं, प्याद की हैं अनेकं।
कहौं मैं कहाँ लौं, भरे जुध्ध टेकं॥186॥