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भारतेन्दु-जयंती / रामचंद्र शुक्ल

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(1)
खड़ा विदा के हेतु हमारा चिर पोषित साहित्य।
बना बनाया भाव-भवन था गिरता जाता नित्य ।।
खड़हर करके हृदय खुक्ख हो कुछ तो बर्बर नीच।
कृशित बुध्दि निज लगे टिकाने भाडे क़े घर बीच ।।

(2)
इस भू के जो विटप, बेलि, नग, निर्झर, नदी कछार।
सभी एक स्वर से पुकारते बार बार धिक्कार ।।
हो प्रेमत जब एक एक लगे हटाने हाय।
उनके बंधु और चिर-प्रतिनिधि रुचिर शब्द समुदाय ।।

(3)
पश्चिम से जो ज्ञान-ज्योति की धारा बही विशाल।
बुझे दीपकों को उससे हम लेवें अपने बाल ।।
नहीं चेत यह हमें, रहे हम चिनगारी पर भूल।
यहाँ वहाँ जो गिरती केवल प्राप्तकाल अनुकूल ।।

(4)
पल्ला पकड़ विदेशी भाषा का दौडे क़ुछ वीर।
नए नए विज्ञान कला की ओर छोड़कर धीर ।।
पिछड़ गया साहित्य शिथिल तन लिया न उसको संग।
पिया ज्ञान रस आप, लगा वह नहीं जाति के अंग ।।
 
(5)
इसी बीच भारतेन्दु कर बढे विशाल उदार।
हिंदी को दे लगाया नए पंथ के द्वार ।।
जहाँ ज्ञान विज्ञान आदि के फैले रत्न अपार।
संचित करने लगी जिन्हें हैं हिंदी विविध प्रकार ।।
 
('इन्दु', सितम्बर, 1913)