भारत के भुज-बल जग रक्षित / भारतेंदु हरिश्चंद्र
भारत के भुजबल जग रक्षित।
भारतविद्या लहि जग सिच्छित॥
भारततेज जगत बिस्तारा।
भारतभय कंपत संसारा॥
जाके तनिकहिं भौंह हिलाए।
थर थर कंपत नृप डरपाए॥
जाके जयकी उज्ज्वल गाथा।
गावत सब महि मंगल साथा॥
भारतकिरिन जगत उँजियारा।
भारतजीव जिअत संसारा॥
भारतवेद कथा इतिहासा।
भारत वेदप्रथा परकासा॥
फिनिक मिसिर सीरीय युनाना।
भे पंडित लहि भारत दाना॥
रह्यौ रुधिर जब आरज सीसा।
ज्वलित अनल समान अवनीसा॥
साहस बल इन सम कोउ नाहीं।
तबै रह्यौ महिमंडल माहीं॥
कहा करी तकसीर तिहारी।
रे बिधि रुष्ट याहि की बारी॥
सबै सुखी जग के नर नारी।
रे विधना भारत हि दुखारी॥
हाय रोम तू अति बड़भागी।
बर्बर तोहि नास्यों जय लागी॥
तोड़े कीरतिथंभ अनेकन।
ढाहे गढ़ बहु करि प्रण टेकन॥
मंदिर महलनि तोरि गिराए।
सबै चिन्ह तुव धूरि मिलाए॥
कछु न बची तुब भूमि निसानी।
सो बरु मेरे मन अति मानी॥
भारत भाग न जात निहारे।
थाप्यो पग ता सीस उधारे॥
तोरîो दुर्गन महल ढहायो।
तिनहीं में निज गेह बनायो॥
ते कलंक सब भारत केरे।
ठाढ़े अजहुँ लखो घनेरे॥
काशी प्राग अयोध्या नगरी।
दीन रूप सम ठाढी़ सगरी॥
चंडालहु जेहि निरखि घिनाई।
रही सबै भुव मुँह मसि लाई॥
हाय पंचनद हा पानीपत।
अजहुँ रहे तुम धरनि बिराजत॥
हाय चितौर निलज तू भारी।
अजहुँ खरो भारतहि मंझारी॥
जा दिन तुब अधिकार नसायो।
सो दिन क्यों नहिं धरनि समायो॥
रह्यो कलंक न भारत नामा।
क्यों रे तू बारानसि धामा॥
सब तजि कै भजि कै दुखभारो।
अजहुँ बसत करि भुव मुख कारो॥
अरे अग्रवन तीरथ राजा।
तुमहुँ बचे अबलौं तजि लाजा॥
पापिनि सरजू नाम धराई।
अजहुँ बहत अवधतट जाई॥
तुम में जल नहिं जमुना गंगा।
बढ़हु वेग करि तरल तरंगा॥
धोवहु यह कलंक की रासी।
बोरहु किन झट मथुरा कासी॥
कुस कन्नौज अंग अरु वंगहि।
बोरहु किन निज कठिन तरंगहि॥
बोरहु भारत भूमि सबेरे।
मिटै करक जिय की तब मेरे॥
अहो भयानक भ्राता सागर।
तुम तरंगनिधि अतिबल आगर॥
बोरे बहु गिरी बन अस्थान।
पै बिसरे भारत हित जाना॥
बढ़हु न बेगि धाई क्यों भाई।
देहु भारत भुव तुरत डुबाई॥
घेरि छिपावहु विंध्य हिमालय।
करहु सफल भीतर तुम लय॥
धोवहु भारत अपजस पंका।
मेटहु भारतभूमि कलंका॥
हाय! यहीं के लोग किसी काल में जगन्मान्य थे।
जेहि छिन बलभारे हे सबै तेग धारे।
तब सब जग धाई फेरते हे दुहाई॥
जग सिर पग धारे धावते रोस भारे।
बिपुल अवनि जीती पालते राजनीती॥
जग इन बल काँपै देखिकै चंड दापै।
सोइ यह पिय मेरे ह्नै रहे आज चेरे॥
ये कृष्ण बरन जब मधुर तान।
करते अमृतोपम वेद गान॥
सब मोहन सब नर नारि वृंद।
सुनि मधुर वरन सज्जित सुछंद॥
जग के सबही जन धारि स्वाद।
सुनते इन्हीं को बीन नाद॥
इनके गुन होतो सबहि चैन।
इनहीं कुल नारद तानसैन॥
इनहीं के क्रोध किए प्रकास।
सब काँपत भूमंडल अकास॥
इन्हीं के हुंकृति शब्द घोर।
गिरि काँपत हे सुनि चारु ओर॥
जब लेत रहे कर में कृपान।
इनहीं कहँ हो जग तृन समान॥
सुनि के रनबाजन खेत माहिं।
इनहीं कहँ हो जिय सक नाहिं॥
याही भुव महँ होत है हीरक आम कपास।
इतही हिमगिरि गंगाजल काव्य गीत परकास॥
जाबाली जैमिनि गरग पातंजलि सुकदेव।
रहे भारतहि अंक में कबहि सबै भुवदेव॥
याही भारत मध्य में रहे कृष्ण मुनि व्यास।
जिनके भारतगान सों भारतबदन प्रकास॥
याही भारत में रहे कपिल सूत दुरवास।
याही भारत में भए शाक्य सिंह संन्यास॥
याही भारत में भए मनु भृगु आदिक होय।
तब तिनसी जग में रह्यो घृना करत नहि कोय॥
जास काव्य सों जगत मधि अब ल ऊँचो सीस।
जासु राज बल धर्म की तृषा करहिं अवनीस॥
साई व्यास अरु राम के बंस सबै संतान।
ये मेरे भारत भरे सोई गुन रूप समान॥
सोइ बंस रुधिर वही सोई मन बिस्वास।
वही वासना चित वही आसय वही विलास॥
कोटि कोटि ऋषि पुन्य तन कोटि कोटि अति सूर।
कोटि कोटि बुध मधुर कवि मिले यहाँ की धूर॥
सोई भारत की आज यह भई दुरदसा हाय।
कहा करे कित जायँ नहिं सूझत कछु उपाय॥