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भारत दुर्दशा/ अनिरुद्ध प्रसाद विमल
Kavita Kosh से
भारत दुर्दशा हो रामा, आँख खोली देखै रे दैवा,
छर-छर गिरै आँखी सें लोर न रे दैवा ।
कोनटा-ओहारी हो कानै, माथोॅ मैया आपनोॅ रे धूनै,
कानी-कानी मैयो भेलै बेजान न रे दैवा ।
देशोॅ के बेटैं हो लूटै, लड़ी-लड़ी आपस में फूटै,
घरेॅ-घरेॅ बिलटै ईमान न रे दैवा ।
देशोॅ के सपूत हो सुतलोॅ, शिक्षक विद्वानों हो सुतलोॅ,
जागें-जागें ! भेलै आबेॅ भोर न रे दैवा ।
ओढ़ी लेवै हरी-हरी चुनरी, माथा बान्हवै केशरिया बाना,
मातृभूमि लेॅ होवै बलिदान न रे दैवा ।