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भार / प्रशान्त 'बेबार'
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डोली में लगते दो कंधे
अर्थी में लगते हैं चार
जीवन की ये कैसी माया
बिन रूह बदन है बोझिल भार
जिस तरह ये रीत अनोखी
उसी मानिंद है अपना प्यार
तुम बिन मैं इक ख़ाली काया
तड़पा फिरता यूँ बारम्बार