भाले और कुदालें / बाल गंगाधर 'बागी'
भाले चलाते जंगल मंे, खाने की टोह में
तीर व कमान संग, शिकारों की खोज में
सूखी लकड़ियों को, बीन-बीन लाकर
पत्ते व घास फूस, चूल्हे की मोह में
गट्ठर के गट्ठर, महुआ के पत्तल
साखू केले के पत्तों को तोड़कर
क्या-क्या बनाते हैं, एक-एक तोड़क
जंगल के पेड़ों से, फूलों को जोड़कर
बांसुरी मधुर-धुन, कोयल मधुर सुर
गाते बजाते हैं, नाचते हैं सब मिल
कितने रंगों में, ये खोयी जमात1 है
जब तक न कोई बाहरी उत्पात है
लेकिन बरसात में है, तर बितर जिंदगी
गिरते हैं घर या, टपकती है झोंपड़ी
पानी हलाहल गड्ढे व नालों में
चट्टानें खिसकती, पहाड़ी ढलानांे में
रास्ते खिसकके, ढलान बन जाते हैं
कई महीनों तक रास्ते रुक जाते हैं
खाने कमाने के रास्ते मुड़ जाते हैं
लाचार बेरोजगार वो, कैसे रह पाते हैं
जंगल पहाड़ों में, भारी बरसात पर
कीचड़ फैलाता है मौसम उत्पात कर
बीमार लाचार हो, घुट-घुट के मरते हैं
दवाई दारू जब न, उनको मिलते हैं
तड़पते पहाड़ हैं जहाँ रेगिस्तान हैं
उड़ते धूलों से लड़ना मुहाल है
सूखती नदियों में पानी कहाँ है
जीवित रहना मगर उनको वहाँ है
वीरान जगह पे वीरान जिंदगी है
दवा न दारू शिक्षा की कमी है
दुनिया है पहुँची, कहाँ से कहाँ तक
मगर इस लहर से, वो परिचित नहीं है
भटकते हैं जंगल में दिन-रात क्यों कर?
महान सभ्यता के रहनुमा होकर?
महलों में रहने वाले भटकते हैं दर-दर
जल और जमीन सब जंगल को खोकर