भावात्मक समझदारी से एक तस्वीर को देखने की कोशिश / शिवप्रसाद जोशी
खड़ी हो तुम
एक थकान में
एक स्वप्न में
एक आकांक्षा में
एक विचार में
एक तस्वीर है उसमें
खड़ी हो तुम
इतने सारे लोग हैं वहाँ
और वह क्या है जो तुम अलग हो
इस तस्वीर में
दूर से दिखती हुई जैसे किसी फ़ैसले के लिए तत्पर
क्या है उन आँखों में
चालाकी करुणा चाहत सवाल
क्या है
जो सदियाँ बीत गई हैं
और समझ नहीं आता मुझे
तुम एक किसान जैसी दिखती हो
एक भटकती हुई रूह
तुम्हारी आँखो में ये कैसी तलाश है
तुम तस्वीर से निकल कर
ऐसे आई हो जैसे संगीत से उसकी गूँज
जैसे एक आलाप है फैलता हुआ
और वो तुम्हारी देह में तड़पता है
सारी तानें वहीं से आ रही हैं
यह कौन सी भाषा है
कौन सा दर्द
और यह दर्द है या एक छुटकारा
उठता आसमान को उठता और ऊपर उठता...
तुम एक शरीर हो
या रंग
वह काला है और गाढ़ा बैंगनी या पता नहीं कुछ नीला जैसा
हवा हो
या एक हँसी
या सिर्फ़ वे आँखें हैं
और कुछ नहीं हैं
कोई रंग नहीं
कोई हवा
कोई आवाज़
कोई हलचल नहीं कुछ नहीं है
बस तुम हो
इतना हुजूम
इतना कोलाहल
इतने दृश्य
फिर तुम्हीं क्यों हो इस पर एक पर्दे की तरह उठती और गिरती हो मेरी चेतना में
मेरी साँस में एक लकीर खिंच गई है टेढ़ी-मेढ़ी
जाती हुई यहाँ से वहाँ और कई आकार बनाती हुई
चुभोती हुई निस्बतन मुझे ही बार-बार
कराह टुकड़े-टुकड़े हो रही है
और क्या देखता हूँ
वहाँ खिलखिला कर हँस रही हो तुम।