भाषा और तुम / दीप्ति पाण्डेय
मेरे साथी, मेरी कविता के नायक
तुम पर एक पूर्ण कविता लिखने की चाह में
मैंने जोड़े न जाने कितने ही टूटे - फूटे अधूरे भाव
जो स्मृतिपटल पर लहरों की तरह आए
और विलोपित हो गए समय की सादनीरा में
न जाने किस - किस शब्दकोष से ढूँढ़े
वे अति विशेष और क्लिष्ट शब्द
जिन्हे भाषा के हाशिए पर कहीं दूर धकेल दिया था
लेखन के प्रारंभिक दिनों में
इस विश्वास के साथ
कि शायद ही वे तुमसे सरल हृदय से तादात्म्य बैठा पाएँ
लेकिन ये क्लिष्ट शब्द
कविता की यात्रा में पुनः शामिल हो गए
इस विश्वास के साथ
कि 'विशेष' का वर्णन सरल भाषा को दुर्गम है
आज मेरी कविता,
अपनी अपूर्णता के अर्द्धविराम पर सर टेके उदास खड़ी है
अपनी चूक को विस्मय की खूँटी पर टँगे देख
खिन्न और व्याकुल कविता
भाषा के चौराहे से भटक गई थी साथी
उसके पद -चिह्न बता रहे थे
कि तुमपर लिखने के लिए
मुझे तोड़ने होंगे भाषा के पूर्वाग्रह
जाना होगा क्लिष्ट से अति सरल की ओर |