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भिखारी रोॅ जिनगी / नवीन ठाकुर ‘संधि’

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एक भिखारी माँगै छीं भीख,
गाँव- गाँव घरेॅ-घोॅर चारो दिश।

कोय डाँटै धमकाय छै,
कोय लूलूवाय छूछूवाय छै।
कोय एक मुट्ठी अनाज दै छै उठाय,
कोय दै छै खाड़ोॅ भगाय।
लोर पीवी केॅ करै छी रीस,
एक भिखारी माँगै छीं भीख।

हे भगवान! की देल्हेॅ हमरा करनी रोॅ फल,
हाथ गोड़ ठुठोॅ हरी लेल्हेॅ हमरोॅ बल।
लोर पोछतें- पोछतें नै फूटै छै बोल,
‘‘संधि’’ केॅ दुःख ईश्वर दहोॅ ओकरोॅ दुःखबंधन केॅ खोल।
ई दुक्खोॅ सें बढ़िया छै खैबोॅ बिख,
एक भिखारी माँगै छीं भीख।